मिडिल क्लास की उम्मीदें और बजट की पहली झलक
"बजट आ गया?" ये सवाल हर साल की तरह इस बार भी हमारे घर के व्हाट्सएप ग्रुप में सुबह-सुबह तैरने लगा। मेरे पिताजी, जो एक सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी हैं, हमेशा कहते हैं, “बेटा, बजट गरीब और मिडिल क्लास के बीच की रस्साकशी है। देखो इस बार किसकी चलती है।” और इस बार, जब वित्त मंत्री ने संसद में दस्तावेज खोले, तो बहुत सारे मिडिल क्लास परिवारों की निगाहें एक ही उम्मीद में थीं—क्या इस बार कुछ राहत मिलेगी?
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बजट 2025 का ब्लूप्रिंट: आत्मनिर्भर भारत की ओर एक और कदम! |
सरकार की मंशा और आम आदमी की नजर
2025 का बजट दिखने में बहुत आकर्षक है—नई योजनाएँ, रियायतें, सब्सिडी और डिजिटल इंडिया को आगे बढ़ाने के कई एलान। लेकिन इन सबके बीच असली सवाल यह है कि आम आदमी को इससे क्या मिलेगा? खासकर मिडिल क्लास को, जो हर महीने टैक्स भी देता है, बच्चों की पढ़ाई भी देखता है, और भविष्य के लिए बचत भी करता है।
मेरे एक मित्र की माँ जो स्कूल में शिक्षिका हैं, उन्होंने कहा, “बेटा, बजट में चाहे कुछ भी हो, जब तक दाल-तेल सस्ता नहीं होगा, राहत कहाँ?” उनका यह तंज हँसने वाला जरूर था, पर काफी गहराई लिए हुए था।
किसानों की चिंता, स्वास्थ्य की चुनौतियाँ और शिक्षा की सच्चाई
कृषि: ट्रैक्टर से आगे की बात करें तो...
सरकार ने किसानों के लिए 12,000 करोड़ रुपये का बजट तय किया है। इसके साथ नए ट्रैक्टरों पर सब्सिडी भी बढ़ाई गई है। सुनने में यह फैसला जोरदार लगता है, लेकिन असल खेत में काम करने वालों से बात करें, तो असलियत कुछ और ही निकलती है।
बिहार के एक किसान मित्र बताते हैं, “भाई साहब, ट्रैक्टर तो ठीक है, लेकिन MSP का क्या? हम फसल बोते हैं, काटते हैं, लेकिन दाम वही पुराने मिलते हैं।” उत्तर भारत के कई राज्यों में किसान अब भी अनिश्चितता से जूझ रहे हैं। बीज, खाद, पानी सब महंगे हैं, लेकिन खरीद मूल्य उतना ही है। एक किसान की असली मदद सिर्फ ट्रैक्टर या मशीनों से नहीं होती, उसे स्थिर कीमतों और भरोसेमंद मंडियों की जरूरत है।
सरकार को चाहिए कि वो MSP को कानूनी गारंटी की तरफ बढ़ाए, ताकि किसान सिर्फ मौसम और दलालों की कृपा पर न टिके रहें।
स्वास्थ्य: अस्पताल से पहले डॉक्टर की जरूरत
बजट में 500 नए आयुष्मान भारत हॉस्पिटल की घोषणा अच्छी लगती है। लेकिन गाँवों और कस्बों में रहने वालों के लिए असली मुद्दा हॉस्पिटल नहीं, वहाँ डॉक्टर, नर्स, दवाइयाँ और मशीनों की उपलब्धता है।
उत्तराखंड की एक नर्स बताती हैं, “हमारे यहाँ कई गाँव ऐसे हैं जहाँ आज भी एम्बुलेंस आने में 2 घंटे लग जाते हैं। डॉक्टर महीने में एक बार आते हैं, और दवाइयाँ तो जैसे बोनस में मिलती हैं।”
अगर सरकार वास्तव में हेल्थकेयर को जमीनी स्तर तक ले जाना चाहती है, तो केवल इमारतें बनाने से काम नहीं चलेगा। वहाँ इंसान, संसाधन और निरंतर आपूर्ति की जरूरत है।
शिक्षा: लैपटॉप नहीं, नेटवर्क चाहिए
डिजिटल इंडिया के तहत सरकार ने 10 लाख लैपटॉप देने की योजना बनाई है। लेकिन एक छात्र जो ग्रामीण बिहार के सरकारी स्कूल में पढ़ता है, कहता है, “सर, हमारे यहाँ बिजली 4 घंटे ही आती है, इंटरनेट तो सपना है।”
लैपटॉप देने से पहले सरकार को गाँवों में आधारभूत सुविधाओं पर काम करना होगा। स्कूलों में शिक्षक हों, स्मार्ट क्लास हों, और बच्चों को समझाने वाला माहौल हो। तभी यह योजना सफल होगी।
छोटे कस्बों के कई स्कूलों में प्रोजेक्टर तो हैं, लेकिन कभी बिजली नहीं, तो कभी उसे चलाने वाला नहीं। सरकार को इस असंतुलन पर फोकस करना होगा। सिर्फ योजना बनाना ही नहीं, उसे जमीन पर लागू करना ही असली सफलता है।
नौजवानों का सपना और ज़मीनी हकीकत
"डिग्री मिली, नौकरी नहीं" स्किल इंडिया का अधूरा वादा
मेरे मोहल्ले में राहुल नाम का एक लड़का है। उसने आईटीआई से इलेक्ट्रीशियन का कोर्स किया था। कोर्स के बाद बड़े सपने थे—"अब तो नौकरी पक्की!" लेकिन कोर्स पूरा हुए एक साल हो गया, वो आज भी मोहल्ले में पंखे और मोटर ठीक कर के गुजर-बसर कर रहा है।
"सरकार ने ट्रेनिंग तो दिलवा दी," वो कहता है, "पर न कहीं अपॉइंटमेंट है, न कोई प्लेसमेंट।" यही कहानी पूरे देश में हज़ारों युवाओं की है—ट्रेनिंग मिल जाती है, सर्टिफिकेट भी मिल जाता है, लेकिन जब नौकरी की बात आती है तो कंपनियाँ कहती हैं—"एक्सपीरियंस कहाँ है?"
सवाल ये नहीं है कि स्किल इंडिया गलत है। सवाल है कि क्या ये ज़मीन पर असर डाल रहा है? जब कोर्स खत्म हो जाता है, उसके बाद सरकार कहाँ गायब हो जाती है?
सरकार को चाहिए कि ट्रेनिंग के साथ-साथ इंटर्नशिप, स्टाइपेंड, और स्थानीय स्तर पर प्लेसमेंट हब बनाए जाएँ।
"मेट्रो आएगी तो अच्छा लगेगा, लेकिन पहले कीचड़ तो हटाओ"
बजट में मेट्रो लाइनों का ऐलान सुनकर शहरों में रहने वाले लोग बहुत उत्साहित हैं। कोई कहता है ऑफिस टाइम बच जाएगा, कोई कहता है ट्रैफिक कम होगा। लेकिन गाँवों की सच्चाई इससे एकदम उलट है।
मेरे गाँव में, बारिश आते ही रास्ता कीचड़ से भर जाता है। स्कूल जाने वाले बच्चे स्लिप हो जाते हैं, बुज़ुर्गों को हॉस्पिटल तक ले जाना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में कोई बोले मेट्रो आ रही है, तो हँसी आ जाती है।
इन्फ्रास्ट्रक्चर का मतलब सिर्फ बड़े शहरों में चमचमाती मेट्रो नहीं होता। असली भारत उन गलियों में है जहाँ आज भी लोग लकड़ी की पुलिया पार कर के खेत तक जाते हैं। सरकार को समझना होगा कि ‘विकास’ सिर्फ हाईवे और एस्केलेटर नहीं होता, बल्कि वो टूटी हुई सड़कों का रिपेयर, और हर गाँव में एक पक्का रास्ता भी होता है।
सोलर एनर्जी: अच्छा सपना, पर कितना सच्चा?
सोलर सब्सिडी बढ़ाना सुनकर मेरे पापा खुश हो गए। बोले, "अगर सही से मिल जाए तो बिजली का बिल आधा हो सकता है!" लेकिन जैसे ही उन्होंने इंस्टॉलेशन का खर्चा देखा, माथा पकड़ लिया।
"30-40 हज़ार पहले लगाओ, फिर बिजली का बिल कम होगा? और अगर मशीन खराब हो जाए तो कौन सुधारेगा?" उनका सवाल बिल्कुल जायज़ है। एक आम आदमी के लिए यह योजना सुनने में तो अच्छी है, लेकिन अमल में उतनी आसान नहीं।
मैंने देखा है कि जो लोग अपार्टमेंट में रहते हैं, उन्हें सोसाइटी से अनुमती लेने में ही महीनों लग जाते हैं। और फिर तकनीकी जानकारी का भी अभाव होता है। सरकार को सिर्फ सब्सिडी देने से बात नहीं बनेगी। उसे लोगों को जागरूक करना होगा, टेक्निकल सपोर्ट देना होगा और आसान फाइनेंस स्कीम लानी होगी।
अगर ये चीजें सही से हों तो न सिर्फ बिल कम होंगे, बल्कि पर्यावरण को भी राहत मिलेगी।
आम आदमी की उम्मीदें और बजट की असल परीक्षा
कॉर्पोरेट को राहत, आम आदमी को राहत कब?
बजट में जब ये खबर आई कि कॉर्पोरेट टैक्स 22% से घटाकर 18% कर दिया गया है, तो न्यूज़ चैनलों पर बड़ा हल्ला मच गया। "इंडस्ट्री को बूस्ट मिलेगा", "विदेशी निवेश आएगा" जैसी बातें हर तरफ छा गईं। लेकिन मेरे जैसे मध्यमवर्गीय आदमी को इससे क्या लेना?
मेरे पापा कहते हैं, "हमारे लिए तो ना इनकम टैक्स घटा, ना LPG सिलेंडर सस्ता हुआ, ना दूध-आटा। हमें तो लगता है जैसे हर बजट में किसी और के अच्छे दिन आते हैं।" सच कहें तो उनका दर्द जायज़ है।
डिजिटल इंडिया: लैपटॉप दे दिए, लेकिन इंटरनेट कहाँ है?
बजट में 10 लाख लैपटॉप बांटने की योजना है। सुनने में तो बहुत अच्छा लगता है—"डिजिटल इंडिया का सपना!" लेकिन मेरी भांजी, जो उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में पढ़ती है, उसका कहना है, "भैया, लैपटॉप तो मिल जाएगा, लेकिन अगर बिजली ही दिन में 6 घंटे ही आए, तो चार्जिंग कैसे होगी?"
उसके स्कूल में स्मार्ट क्लास तो है, लेकिन प्रोजेक्टर कब चालू होगा, इसका कोई ठिकाना नहीं। ऊपर से नेटवर्क इतना खराब कि एक वीडियो लोड करने में 15 मिनट लगते हैं। ये कैसा डिजिटल इंडिया है?
सरकार को चाहिए कि सबसे पहले इंटरनेट की कनेक्टिविटी, बिजली की उपलब्धता, और डिजिटल ट्रेनिंग को प्राथमिकता दे। वरना ये लैपटॉप सिर्फ शोपीस बन कर रह जाएँगे।
क्या ये बजट गाँव-देहात तक पहुँचेगा?
2025 के बजट में योजनाएँ तो खूब हैं किसानों के लिए फंड, युवाओं के लिए स्किल मिशन, MSMEs को राहत, हेल्थकेयर में निवेश। लेकिन असली सवाल ये है कि क्या ये सब बातें गाँवों और कस्बों तक पहुँचेंगी?
मेरे चाचा जी कहते हैं, "बड़ी-बड़ी बातें तो हर साल होती हैं, लेकिन सरकारी ऑफिस जाओ तो फाइलें ही गुम हो जाती हैं।" और ये बात सिर्फ एक जगह की नहीं है। भारत के हर कोने में सरकारी योजनाओं की जमीनी हालत कुछ ऐसी ही है या तो जानकारी नहीं पहुँचती, या फिर बाबूगिरी में उलझ कर रह जाती है।
अगर सरकार इस बजट को सच में "जन बजट" बनाना चाहती है, तो उसे ट्रांसपेरेंसी, स्थानीय निगरानी समितियाँ और डिजिटल ट्रैकिंग सिस्टम लागू करना होगा। ताकि आम आदमी को ये भरोसा हो कि जो वादा किया गया है, वो पूरा भी होगा।
निष्कर्ष: वादों से आगे बढ़कर क्रियान्वयन की ज़रूरत
बजट 2025 एक पेपर पर बेहतरीन डॉक्यूमेंट लग सकता है। इसमें हर वर्ग के लिए कुछ-न-कुछ है। लेकिन जो सवाल सबसे बड़ा है, वो है—क्या ये योजनाएँ हकीकत बनेंगी?
- मिडिल क्लास को सीधी राहत नहीं मिली, लेकिन कुछ सेक्टर्स में अप्रत्यक्ष फायदे की उम्मीद की जा रही है।
- किसानों को फंड मिला, लेकिन MSP और बीमा जैसे मूलभूत मुद्दे अब भी अधूरे हैं।
- युवाओं के लिए स्किल डेवेलपमेंट की योजनाएँ आईं, लेकिन रोज़गार का भरोसा अब भी कमज़ोर है।
- गाँवों में विकास की बात हुई, लेकिन इन्फ्रास्ट्रक्चर और हेल्थकेयर जैसी ज़रूरतें अब भी अधूरी हैं।
तो ये बजट "मिश्रित भावनाओं वाला" है। कुछ लोगों के लिए उम्मीद, कुछ के लिए सवाल, और बहुतों के लिए सिर्फ आंकड़ों का खेल।
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQs)
1. क्या बजट 2025 से मिडिल क्लास की जिंदगी में कोई फर्क पड़ेगा?
फर्क तभी पड़ेगा जब ऐलान कागज़ से निकलकर हमारे मुहल्लों तक पहुँचे। टैक्स में सीधी राहत तो नहीं मिली, लेकिन अगर गैस, बिजली या पढ़ाई के खर्चों में कुछ राहत मिले, तो मिडिल क्लास थोड़ा चैन की साँस ले सकता है।
2. छोटे दुकानदारों को GST में छूट मिली है, पर क्या सबको इसका फायदा मिलेगा?
जब तक सरकार ऐसा सिस्टम नहीं लाती जिसमें बिना CA के भी छोटा व्यापारी फॉर्म भर सके, तब तक ये छूट भी अधूरी ही रहेगी।
3. किसान के लिए ट्रैक्टर की सब्सिडी तो ठीक है, पर MSP का क्या हुआ?
किसान को ट्रैक्टर की नहीं, अपनी फसल की सही कीमत की ज़रूरत है। MSP पर पुख्ता बात ना होना निराशाजनक है।
4. हेल्थ बजट में अस्पताल बनाने की बात हुई है, पर क्या गाँवों में डॉक्टर भी आएँगे?
अस्पताल बना देना काफी नहीं, डॉक्टर और दवाइयाँ भी जरूरी हैं। वरना इमारतें खाली रह जाएँगी।
5. सरकार कहती है डिजिटल इंडिया, पर क्या गाँवों में 4G भी चलता है?
इंटरनेट और बिजली जैसी बुनियादी चीज़ों को मजबूत किए बिना डिजिटल इंडिया का सपना अधूरा है।
6. क्या युवाओं को इस बजट से सच में नौकरी मिलने लगेगी?
हुनर जरूरी है, लेकिन नौकरी के मौके और इंडस्ट्री की मांग के बिना कोई लाभ नहीं।
7. कॉर्पोरेट टैक्स घटा है, तो क्या आम आदमी को भी कोई सीधा फायदा मिलेगा?
जब तक रसोई सस्ती नहीं होती और EMI पर राहत नहीं मिलती, तब तक आम आदमी को फर्क नहीं दिखेगा।
8. क्या ये बजट आम लोगों की ज़िंदगी को आसान बनाएगा?
नीयत अच्छी है, लेकिन अमल की गति धीमी है। जब गाँव-गली में असर दिखेगा, तभी सच्चा बदलाव माना जाएगा।
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